पुरुष चाहता है
अपनी नसीहतों से
स्त्री को मूर्ख साबित करना।
बार-बार आहत करके
अपनी जीत का
एहसास कराना।
स्त्री के भीतर जो भी
मूल्यवान है
उसे तहस-नहस करना।
वह संस्कारों से बँधी
पिसी रहती है
घुन की तरह।
उसका अधिकार
रिश्तों को समेट कर
रखना ही है।
पुरुष जानना ही नहीं चाहता
कि बिखरे सूत्रों को
सुलझाने वाली स्त्री
के भीतर भी
एक मस्तिष्क है।
विद्या भंडारी
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)