आज जब भी मुझे गुस्सा आता है उसके तुरन्त बाद ही मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान की लहर दौड़ जाती है ।आप कहेंगे कि ऐसा तो संभव ही नहीं है, लेकिन गुस्से के पीछे एक बहुत ही रोचक किस्सा छुपा हुआ है, जो कि आज भी मुझे गुदगुदा ही जाता है । लेख में जो चित्र आप देख रहे हैं ये है मेरी पहली पाठशाला ये मेरे दिल के बहुत करीब है और घर के भी। इस पाठशाला में मेरे पिता जी, चाचा जी तथा दूसरी पीढ़ी में फिर मैंने भी पढाई की। इस पाठशाला में मैंने पहली बार मतदान भी किया।
खैर जैसा कि मैंने पहले ही बताया ये पाठशाला मेरे घर के पास ही था तथा दूसरी पाठशाला गांव के बाहर। दूसरी पाठशाला का ज़िक्र इसलिए कि वो भी मेरे इस किस्से का रोचक हिस्सा रहा। चूंकि ये पाठशाला मेरे घर के पास था तो मेरा प्रवेश पहली कक्षा से यहीं पर हुआ, हमारे समय में LKG और UKG का कोई विकल्प नहीं हुआ करता था। बात उस समय की है जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ रही थी, हमारे कक्षा में डेस्क और बेंच जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी चूंकि प्रत्येक कक्षा में बहुत कम बच्चे थे तो अक्सर हमारी कक्षाएं एक साथ चलती थी। खासकर छुट्टी होने के एक घंटे पहले, एक से पांचवी तक के सभी बच्चों को एक साथ बैठाकर गिनती और पहाड़े याद करवाए जाते थे जिसमें पांचवी कक्षा के दो बच्चे खड़े होकर पहले गिनती पढ़ते और फिर पहाड़े, और फिर सारे बच्चे उसे दोहराते। इसी क्रम में मैं और रूपम प्रधान जो कि तीसरी कक्षा की छात्रा थी,मेरे बगल में बैठी हुई थी। उसने पता नहीं कब चुपके से चॉक खा लिया और हमारे अध्यापक श्रीनिवास राय जी ने देख लिया और बहुत ही फुर्ती के साथ उठे और कटहल के पेड़ से एक छड़ी तोड़ लाए, मुझे और रूपम को डांटते हुए बोले हाथ आगे करो, तुम दोनों ने चॉक खाया है। मैंने उनसे कहा, मैंने नहीं खाया, पर उन्होने मेरी बात नहीं सुनी और हमदोनो के हाथ पर एक एक छड़ी जमा दी। फिर क्या था,मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर, खुद से बड़बड़ाती हुई, जब मेरी गलती नहीं थी तो मुझे मारा क्यों? अपना बस्ता समेटा और छुट्टी होने से पहले ही वहां से रोती हुई निकल गई। उन्हें लगा मैं घर जा रही हूं लेकिन, मैं तो मैं थी। अपने घर ना जाकर दूसरे रास्ते से गांव के बाहर वाले विद्यालय में पहुंच गई और वहां की अध्यापिका श्रीमति रंभा शर्मा से कहा -“मैं दुबे जी की बेटी हूं, मेरा नाम कक्षा चार में लिख लीजिए”
खैर उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरा दाखिला ले लिया क्योंकि वो मेरे पड़ोस में रहती थीं। इधर जब विद्यालय की छुट्टी हुई सारे बच्चे अपने अपने घर पहुंचने लगे और मैं नहीं पहुंची, हालांकि दोनों विद्यालयों की छुट्टी एक ही समय पर होती थी, लेकिन दूसरा विद्यालय गांव से दूर होने के कारण मुझे आने में प्रतिदिन की अपेक्षा देर हो गई, ईधर मेरी मां परेशान। हर बच्चे को अपने दरवाजे पर रोक रोक कर पूछने लगी, बच्चों ने बताया कि वो तो छुट्टी से पहले ही चली आई थी। मेरी मां का रोना शुरू क्योंकि विद्यालय और घर के रास्ते के बीच एक कुंआ भी था और मां को लगा मैं तो गई….
इसी बीच मैं घर पहुंच गई, पहले तो बहुत डांट पड़ी फिर मैंने जब पूरी बात बताई तो सभी हंसने लगे और मैं अगले दिन तीन रूपए प्रवेश शुल्क तथा डेढ़ रूपए मासिक शुल्क लेकर दूसरे वाले विद्यालय में पहुंच गई, तथा बाकी औपचारिकताएं पिता जी ने पूरी कर दी और मैं दूसरे विद्यालय में पढ़ने लगी।
लेकिन जब भी मेरी अपने अध्यापक श्रीनिवास राय जी से मुलाकात होती, वो हमेशा पूछते, अब तुम्हारा गुस्सा कम हुआ या नहीं, और मैं झेंपकर वहां से भाग जाती। जब मैंने एम. ए में इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रवेश ले लिया तो ये सूचना मेरे अध्यापक तक भी पहुंच गई हालांकि तब तक वो सेवानिवृत हो चुके थे और उनकी बिटिया का विवाह हमारे ही पड़ोस में हो चुका था, तो उनका हमारे गांव में आना जाना लगा रहता था। सूचना पाकर वो हमारे घर आए तथा पिता जी से देर तक बात करते रहे, फिर उन्होंने मुझे बुलवाया। मैं पहुंची उन्हें प्रणाम किया तो आशीष देते हुए उन्होंने मुझसे पूछा विश्वविद्यालय का विकल्प रखा है या नहीं? प्रश्न मेरी समझ में नहीं आया, मैने पूछा क्यों? तो उन्होंने कहा वहां (विश्वविद्यालय) मे गुस्सा आ गया तो …. फिर तो कहीं जाना होगा ना?
इतना बोलकर वो और पिता जी हंसने लगे। मैं भी अपनी बचपन की नादानी पर शर्मिंदा होकर घर में भाग आई
हमारे समय में कोई PTM इत्यादि नहीं होता था राह चलते शिक्षक और अभिभावक की मुलाकात होती और बच्चों के विषय में जानकारी मिल जाती।
हमारे शिक्षक भी हमसे संतान सा स्नेह रखते तथा हमलोग भी गुरु का सम्मान ह्रदय से करते, ऐसा था हमारे समय का विद्यार्थी और शिक्षक का संबंध, मधुर और खट्टी मीठी स्मृतियों से भरा।
एक बार फिर सभी शिक्षकों को हार्दिक आभार एवम शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं
एक साँस में पढ़ने को बाध्य कर दिया