कैसी “रीत” है दुनिया की,
कि संग संग रहते हुये भी,
मिलते नहीं कभी नदिया,
झील और सागर के दोनों
किनारे,
चाँद और सूरज की ,
युगल जोड़ी है संग संग,
फिर भी इनका मिलन है
दुश्वारे,
राधा कृष्ण एक होते हुये भी,
ना मिल पाये कभी ,
जगत रीत के मारे,
राम और सिया का,
मिलन भी रहा अधूरा,
लोकापवाद से हारे,
छत्तीस के अंक में है,
सर्वाधिक दांपत्य गुणवत्ता,
पर कभी ना एक दूसरे का वो,
मुँह निहारे,
कैसी रीत है ये प्रीत की,
ये सभी हैं एक दूजे के,
सहारे।।
नीलिमा मिश्रा
काँकेर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)