कितना सुख था तब
रहती थी डरी-डरी,
सह लेती थी सब कुछ।
किन्तु
जब से खोजने लगी हूँ अस्मिता
एक ताले की दो चाबियों की तरह
पड़ी रहती है मुस्कान
दोनों की पाकेट्स में।
जरूरत पड़ती है
जब कभी
खोल लेते हैं ताला
अपनी-अपनी चाबी से।
विद्या भंडारी
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)