जीवन के हर मोड़ पर नये पन्नों का खुलना
मानो प्रकृति के ऋतुओं में बदलाव आना
बचपन की वे तोतली बातें, वो खेलना कूदना
जैसे बारिश का छमछम गिरना
जवानी की चंचलता में
जैसे गुलाबी ठण्ड का अहसास होना
उम्र का आगे बढ़ना
मानो पतझड़ में पत्तों का गिरना
सुख-दुख की नैया में बैठे किनारे तक पहुँचना
यादों के सहारे से फिर सँभलना
वक्त बेवक्त की बरसात कहीं
तो कहीं बुराई की चादर ओढ़े शबनम का आना
मृगतृष्णा से तो अच्छा है ऋतु के साथ चलना
मतलबी इस दुनिया में
स्वार्थ की कड़ी धूप से बचना
बदलते परिवेश के साथ
प्रकृति ने भी बदली करवट
साथ नहीं देती अभी इन्सान के बुरे वक्त में
इतना अन्याय इन्सान का सहन नहीं कर पायी
आवेश में बदल डाला अपने आप को
हावी हो गयी मानव के दकियानूसी बर्ताव पे
जैविक महामारी और ऑक्सीजन का कम होना
मत करो खिलवाड़ प्रकृति से
वक्त का तकाजा है अब तो सँभल जा
मनीषा वि नाडगौडा
बेलगाम (कर्नाटक)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)