हरे पत्तों के गिरने का कोई मौसम नहीं होता

Mind and Soul

मिले होते जो राहों में, तो कोई गम नहीं होता
जुस्तजू हो गयी होती ये दिल पुरनम नहीं होता

लुटे हम प्यार की खातिर, मगर कुछ भी नहीं हासिल
वफ़ा करते वफ़ा से वो, तो दिल में खम नहीं होता

सितारे जगमगाते हैं, मगर रोशन कहाँ होते
जलाते दीप देहरी पे, तो वो मातम नहीं होता

‌टूटा गुरबत का जो है दिल, रोज किरचों में है दिखता
दर्द है रोज ही बढ़ता, कोई मरहम नहीं होता

प्यार संजीदा है मेरा, मगर वो संगदिल निकले
मुस्कुरा दें कभी वो तो, ये आलम नहीं होता

रहा ना शबनमी बोसा, दिया था लब पे जो मेरे
हरे पत्तों के गिरने का कोई मौसम नहीं होता

हदों से प्यार के बढ़ कर, बनी हैं सरहदें कितनी
मिले जो पार हद के तो कोई बरहम नहीं होता

ज्योति नारायण

हैदराबाद (तेलंगाना)

(यह इनकी मौलिक रचना है)

 

(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)

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