खिज़ा की रुत में पलाश बनकर खिला भी करती है आज औरत।
लगा के पहरे बला के ऊपर दुआ भी करती है आज औरत।।
चले जो वश तो बचा के रख ले वो अपनी साँसें किसी की खातिर।
यूँ ज़र्द पत्तों को अश्क देकर हरा भी करती है आज औरत।।
न कोई जादू तिलिस्म कोई नवाज़ी दौलत खुदा ने इसको।
मोहब्बतों से खता सभी की क्षमा भी करती है आज औरत।।
सहे थे सदियों से ज़ुल्म जिल्लत कराही ना ही वो मुस्कुराई।
मगर जमाने से लड़ के गम को रिहा भी करती है आज औरत।।
महक रसोई की आज भी, घरों में बरकत बनी हुई है।
मजबूत पंखों से हौसलों के, उड़ा भी करती है आज औरत।।
न गिड़गिड़ाए न लड़खड़ाये, कहाँ किसी से वो मात खाये।
हटा के बंदिश, जता के ख्वाहिश, हँसा भी करती है आज औरत।।
नीता श्रीवास्तव
रायपुर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)