नहीं मचाती शोर कभी ये, चुपके ही रह जाती।
अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।।
लिए गठरिया कर्तव्यों की, प्रतिपल चलती नारी।
माँ बेटी भार्या बनकर नित, अपना जीवन हारी।
अंतर्मन में चीख दबाकर, दुख सारे सह जाती।
अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।।1।।
नहीं भावना समझे कोई, स्वार्थ घिरे संबंधी।
भले शूल में घिरी हुई नित, बिखरी बनी सुगंधी।
सदा सुदृढ़ प्राचीर बनाती, भले स्वयं ढह जाती।
अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।।2।।
करके अपनी आँचल छाया, संतानों को पाले।
समझे माँ अनमोल रतन शिशु, रखती उन्हें सँभाले।
आँख उठे दुश्मन की कोई, उससे लड़ वह जाती।
अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।।3।।
सहनशीलता की प्रतिमा वह, पीर नहीं दिखलाती।
सुंदर चिंतन श्रेष्ठ भावना, घर आँगन बिखराती।
तट बंधों में बँधी हुई नद, नीर बनी बह जाती।
अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।।4।।
इन्द्राणी साहू “साँची”
भाटापारा (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
विधा – *सार छंद गीत* – *16/12*
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(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)