सुनो!
कौन कहता है
कोने सूने या बेवज़ह होते हैं
लगा दी जाती हैं लताएँ
निःशब्द आँगन के कोनों में
चहचहाने उन चिड़ियों को
जो बैचैन है अपनों के पलायन से,
वीराने ड्राइंग रूम की छटपटाहटें
करने दूर कोनों में
रख दिये जाते हैं
सूखे फूलों से सजे गुलदान
ठीक उसी तरह
जैसे भीतर से टूटी औरतें
उपर से होती है श्रृंगारित।
कई बार सरका दी जाती है
चारपाई बड़े सलीके से कोनों में
जो घेरे रहती है बीच की जगह,
मिल ही जाती है दीवारें कोनों की
बूढ़ी काँपती हड्डियों को
सहारे के लिए, बातों के लिए,
कोनो में रखे गये जूते चप्पल भी
दिलाते हैं याद उन अस्तित्वों की
जो छाँट दिये जाते हैं
उपेक्षित होने के लिए,
कई बार कोने
घर के हों या रास्तों के
हो जाते हैं तब्दील कूड़े घर में
न चाहते हुए भी,
अक्सर आपातकालीन स्थिति में
रख लेते है इज्ज़त भी ये कोने,
और कई बार कर भी देते हैं
ख़ामोश कोने धमाके
जब सहेज कर रख दिये जाते हैं
विचार क्रांति की शक्ल में,
धूप सर्दी बरसात की मार
थोड़ी सी हो जाती है किफ़ायती
जिनकी फटी तिरपालें
पाती हैं कोनों की दीवारें,
समझाना, बहकाना, बरगलाना
जताना, बताना, रिझाना
सब इन्हीं कोनों की गवाही में ही तो होता है
सो सुनो!
मत कहो
कोने सूने या बेवज़ह होते हैं।
सविता पोद्दार
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)
सविता जी, अत्यंत मार्मिक कविता है। उपेक्षितों, कमजोर लोगों की नियति दर्ज करने वाली आपकी यह कविता मन को उद्विग्न कर देती है। कोने घर के हों या रास्तों के अक्सर कूड़ा घर में तब्दील होते दृश्य बहुत आम है।
यूँ कोई भी बेकार और उपेक्षित नहीं होता , लेकिन ज़रूरतें और उपयोगिता पर निर्भर रह गया है आदमी का मूल्य।👌