क्या करुणा को गाने वाले जीवन में व्याकुल होते हैं?
क्या हास्य विधा के महारथी हँसते ही जगते सोते हैं?
क्या ओज विधा के लेखक बंदूकें लेकर घर जाते हैं?
क्या राणा को गाने वाले चेतक को सैर कराते हैं?
महँगाई पर लिखने वाला क्या सच में निर्धन होता है?
जो बात चिरागों की करता क्या अंधकार में सोता है?
जो राजनीति पर लिखता है क्या उनका भाई नेता है?
जो लिखता है अंगारों पर क्या हाथ में ज्वाला लेता है?
क्या प्रेम को गाने वाले नफरत के शिकार न होते हैं?
या संवेदना को लिखने वाले हरगिज खार न होते हैं?
क्या जिसकी मांग सिंदूरी है वैराग नहीं लिख सकता है?
या आँचल में पतझड़ हों तो अनुराग नहीं लिख सकता है?
कविता जन-जन की पीड़ा है, कवि भाव बदलता रहता है।
ये सुख-दुःख का मौसम है जो शब्दों में ढलता रहता है।
यदि रूप की रानी दिखे तो कवि श्रृंगारिक क्रीड़ा करता है।
यदि दिख जाये भीख माँगता बच्चा, तो पीड़ा भर देता है।
शब्दों की माला में आँसू और हँसी पिरोना कविता है।
गैरों के सुख में खुश होना, पीड़ा में रोना कविता है।
जब बात देश पर आती है तो कलम छुरी बन जाती है।
जब समय का पहिया चलता है तो कलम धुरी बन जाती है।
तो व्यक्ति विशेष के जीवन से, कविता को न जोड़ा जाये।
कविता श्रीपदा की स्तुति है, अपवादों को मोड़ा जाये।।
शशि श्रेया
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- प्रीति पांडेय)