दीवार

Mind and Soul

अपने कंधों पर ले कर घूमती
ना जाने कितने घर, मंदिर,
कुटी और मीनार,
दीवार।

नींव में बरसों-तलक
दब कर भी
कभी उफ़ नहीं करती
दीवार।

लोग कहते हैं दीवारों के भी
कान होते हैं
पर कभी किसी से कुछ नहीं कहती
दीवार।

अपनी सख़्त बाँहों के घेरे में
बचाये रखती हमारे परिवार को
लोगों की बलाओं से रखती दूर।
हमारे प्यारे घर-संसार को
पीढ़ियों से देखती और
सुनती चुपचाप
दीवार।

जब हमने चलना सीखा
बन सहारा देती रही वह साथ
बचपन में खेल में
स्टम्प बन इतराती रही
सर्दी, गर्मी, लू, बारिश
सबसे हमें बचाती रही
लुका-छिपी के खेल में
हमको छुपाती रही
दीवार।

कभी सुनती मंगल-गीत
तो कभी ढोलक की थाप,
हर्षित हो देखती रही
नई दुल्हन के पद-चाप,
अपने हृदय पर कील सह कर
सँभालती रही
ढेरों तस्वीरें और प्रशस्ति पत्र
दीवार।

फिर भी सदा उपेक्षित रही
बन सामान्य भीत,
दो परिवारों के बीच
खिंच जाती, ऐसी बनी रीत।

अपने तक ही सीमित रखती
परिवार के कष्ट-कलह-संताप को
फिर भी तटस्थ रखती अपने आप को
दीवार।

खुद पर होते देखती
रंग-चूना और मिट्टी की पुताई
अपने ऊपर सहती रही
विज्ञापनों की लिखाई
देखती रही खुद पर हथेलियों की छाप
और सहती रही पेंसिलों की खरोंच
फिर भी नहीं बदल पायी
हमारी सोच।

हम हर बात में कहते रहे
दीवारों के भी कान होते हैं,
लेकिन
जो दीवार होते हैं
इन छोटी बातों से,
नहीं परेशान होते हैं।
इतना कुछ सुन कर
कुछ भी न कहना,
इतना आसान नहीं होता
दीवार बन कर रहना।

स्मृति

(वाराणसी, उत्तर प्रदेश)

(यह इनकी मौलिक और अप्रकाशित रचना है)

 

(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)

4 thoughts on “दीवार

  1. Nice post on deewar .Aj waqai me deewar k liye bht kuch feel hua aur Tara’s aya ki sabkuch sunte huye bhi kuch na kehna ye kala to sachme kisi me nhi .

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