“अरे रत्नेश, सुन-सुन रुक”
सत्यम ने आवाज दी।
रत्नेश ने थोड़ी दूर जा कर बाइक रोक कर पीछे देखा, उसका पुराना दोस्त पुकार रहा था।
जल्दी में था, फिर भी इतने सालों बाद लंगोटिये यार से कैसे मुँह मोड़ता?
“अरे बोल सत्यम, कब आया?”, रत्नेश ने जवाब दिया।
चाहते हुए भी दोनों गले नहीं मिल पाये।
सत्यम ने कहा- “कहाँ गया था?”
रत्नेश ने कहा- “क्या बताएँ, चार दिनों से माँ बीमार हैं, आक्सीजन लेवेल घट-बढ़ रहा है, उन्हीं को अस्पताल में भर्ती करने के लिये भटक रहा हूँ।”
“ओह दुखद, मैं पापा की बीमारी के बारे में सुन कर मुंबई से लौटा, तो चौदह दिन तक क्वारन्टाइन रहा।” सत्यम बोला।
“तू बता, बेड मिला या नहीं?”
“नहीं मिला रे।”
“कल सुपरस्पेशलिटी हास्पिटल मे कहा था कि एक मरीज बिल्कुल अंतिम स्टेज में है आज बेड मिलेगा, इसलिये गया था, पर पता चला कि वह मरीज अब कल से बेहतर है, बेड खाली नहीं हुआ।”
सुधा मिश्रा द्विवेदी
(कोलकाता, पश्चिम बंगाल)
(यह इनकी मौलिक रचना है)