मुक्त सारे बंधनों से आज ये आकाश है
मिट गये किन्तु परंतु,दृढ़ हुआ विश्वास है
चाँद की शीतल निशा में ख्वाब पोसे जायेंगे
भोर की शुभ अरुणिमा में आपका आभास है
मिट गये किन्तु परंतु, दृढ़ हुआ विश्वास है
देह से वैराग्य तक तुमको सदा धारण किया
कंटकों में भी तुम्हारी प्रीत का मधुमास है
मिट गये किन्तु परंतु,दृढ़ हुआ विश्वास है
भाव की मंजुल कली को सींचती हूँ रात-दिन
आपके भी उर बसा मेरे विरह का भास है
मिट गये किन्तु परन्तु, दृढ़ हुआ विश्वास है
मुक्त सारे बंधनों से आज ये आकाश है
मिट गये किन्तु परंतु,दृढ़ हुआ विश्वास है।।
प्रीति त्रिपाठी
नई दिल्ली
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)