हर शाम
पूछती है जिन्दगी
कुछ सवाल
जिनके जवाब ढूँढ रही हूँ मैं।
कुछ काम करने बाकी हैं
पर करूँ कब,
उन्हें करने का
सही वक्त ढूँढ रही हूँ मैं।
कुछ किस्से अनसुने-अनकहे
करना चाहती हूँ साझा,
पर कहूँ किससे
ऐसा इन्सान ढूँढ रही हूँ मैं।
कुछ पन्ने जिन्दगी के
फाड़ देना चाहती हूँ
पर फेंकूँ कहाँ
ऐसे बियाबान ढूँढ रही हूँ मैं।
जिन्दगी का दर्द
निकलता है आँसू बन कर
उसे पोंछ डालूँ जिससे
ऐसा रुमाल ढूँढ रही हूँ मैं।
प्यार से फेरा था हाथ
कभी किसी ने सिर पर
वही अपनेपन का हाथ
बार-बार ढूँढ रही हूँ मैं।
बहुतेरे मिले इस शहर में
अलग-अलग शक्लों वाले,
अपनी सी लगने वाली
पहचान ढूँढ रही हूँ मैं।
रेखाओं में हाथ की
छिपा होता है मुकद्दर
लौटा दे मेरी खुशियाँ
वो लकीर ढूँढ रही हूँ मैं।
कहना है बहुत कुछ
पर कहूँ किस तरह,
कह दे दिल का हाल
वो बयान ढूँढ रही हूँ मैं।
शुभ्रा तिवारी
(गाजीपुर, उत्तर प्रदेश)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)