सबके लिए था उसके मन में प्यार, आदर, समर्पित भाव। लेकिन शायद खुद के लिए ये सब कमाना नहीं आया उसे। और जब-जब इस बात का अहसास होता, थोड़ी देर के लिए उदास हो जाती, फिर सोचती किसी ने कहा थोड़े ही था, ये सब तो उसके मन के ही भाव थे, फिर शिकायत कैसी और किससे? उनसे, जिन्हें अपना समझा या उनसे जो कभी अपने बन ही नहीं सके, पागल है रे तू।
उस दिन पता चला दो-तीन दिन से उसका दोस्त घर से नहीं निकला, पैर में चोट लग गयी थी, बिना एक पल गँवाए पहुँच गयी उसके घर। चल लेने आई हूँ तुझे, तेरा पैर भी ठीक कर दूँगी, घर मे पड़े-पड़े ठीक हो जायेगा क्या? एक नहीं सुनी उसकी निकाल लायी घर से। लेकिन यहाँ उसकी भावना समझता ही कौन है? आखिर यही निकलता है मुँह से, पागल है रे तू।
अपने से जुड़े हर व्यक्ति का दुःख उसे अपना लगता। लगता जैसे क्या करे ऐसा कि सब ठीक कर दे, सबका ठीक कर दे। और इस ‘सब ठीक कर दे’ के चक्कर में अपना सब बिगाड़ लेती और सामने वाला एक फिर उसके जज्बात नहीं समझता। काम पूरा होते ही लोग उससे किनारा कर लेते। लेकिन उसकी समझ में फिर भी नहीं आता। फिर खुद ही कहती, पागल है रे तू।
आज भी यही हुआ, वह सोचती रही, कोई तो पूछेगा, दिखी नहीं, आधे दिन कहाँ गायब रही, सब ठीक तो है, तू परेशान तो नहीं, लेकिन किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि सबके पास अपने-अपने लोग हैं, अपने-अपने आकर्षण हैं, उसकी भावनाओं का शायद कोई मोल नहीं। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्यों इतना सोचती है, पागल है रे तू।
सुषमा सिंह ‘कुंवर’
(यह इनकी मौलिक और अप्रकाशित रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)
निश्छल प्रेम करना, सहृदय व्यक्ति ढूंढना, और मानवीय गुणों से पुर्ण मानवीय रचना मिलना, असंभव नहींतो संभव भी नही है, बहुत बहुत साधुवाद, सप्रेम वंदे