क्यूँ झुकता है आसमां,
बाँहों में समेटने धरती को,
हाँ ये प्रेम ही तो है।
क्यूँ गुनगुनाते हैं भौंरे,
चूमने फूलों को
हाँ ये प्रेम ही तो है।
क्यूँ दौड़ती है नदी,
सागर में समाने,
हाँ ये प्रेम ही तो है।
क्यूँ बादल बरसते हैं,
पर्वतों पर,
हाँ ये प्रेम ही तो है।
क्यूँ आँख भर आती है,
लोरी गाती माँ की,
हाँ ये प्रेम ही तो है।
क्यों मन भर आता है,
शहीदों की कुर्बानियों पर,
हाँ ये प्रेम ही तो है।
क्यों सोहनी चली थी,
कच्चे घड़े पे महिवाल से मिलने,
हाँ वो भी प्रेम ही तो था।
क्यों लैला, हीर और जूलियट ने,
दे दी जान प्रेमी की खातिर,
हाँ वो भी प्रेम ही तो था।
क्यों शाहजहाँ ने मुमताज के लिए,
कर दिया अमर प्रेम को,
हाँ वो भी प्रेम ही तो था।
प्रेम जो शाश्वत है,
प्रेम जो नहीं मरता कभी,
प्रेम जो हर रूप मे जीता है।।
नीलिमा मिश्रा
कांकेर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)