तुम्हारे पौरुष के पाँव जिन्दा हैं
क्योंकि मैंने समेट रखा है अपने पाँवों को रेशम के कीड़ों की तरह।
तुम्हारे पौरुष की आँखें जिन्दा हैं
क्योंकि मेरी आँखें झुकी हुई हैं
शर्मीली दुल्हन की तरह।
तुम्हारा पौरुष जीवित है
क्योंकि मैंने अपनी अस्मिता को छिपा रखा है अपने आँचल में।
तुम्हारा सिर गर्व से ऊँचा है हिमालय की तरह
क्योंकि मुझमें समर्पण भाव है नदी की तरह।
तुम्हारे पौरुष के शब्द कोश के पन्ने फड़फड़ाए नहीं
क्योंकि मैं स्वयम् एक शब्द कोश हूँ
तुम्हारे पौरुष की ऊँची आवाज बरकरार रही
क्योंकि मैंने अपना ली है मौन की भाषा मुनि की तरह
मैं हूँ केवल एक एहसास
मुझे महसूस करो
पौरुष की साँसें चलती रहने के लिए।
विद्या भंडारी
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- सत्यम द्विवेदी)