मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, ये पंक्तियाँ हमारे कविश्रेष्ठ द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने लिखी हैं, जो आज के माहौल में शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रही हैं। मैंने अभी जिस माहौल या दौर का जिक्र किया, वह विशेष रूप से कोरोना महामारी के कारण बना है, जिसने पिछले एक साल से हमें डर के साये में जीने के लिए मजबूर कर दिया है। हर व्यक्ति अंदर से भयभीत है, सहमा है, घबराया हुआ है, हर पल उसके मन में बैठा अज्ञात भय उसे अंदर से खोखला कर रहा है। यह भय चाहे उसे स्वजनों के खोने का हो, चाहे उसके स्वयं के भीतर पल रही अनेक निराधार रोगों के पाँव पसारने का हो या यह भय आजीविका की तलाश में दर-बदर भटकने की दिक्कतों का हो। क्या हमने कभी शांत-चित्त होकर स्थिरतापूर्वक सोचने की कोशिश की, कि कैसे अनजाना भय हमें प्रतिफल घुट-घुट कर जीने के लिए क्यों मजबूर कर रहा है?
तो इसका सीधा सा जवाब होगा, नहीं। क्योंकि हमने कभी इतना समय खुद को दिया ही नहीं कि हम अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनें या उसमें कुछ अच्छे विचारों का रोपण करें। हमने तो सिर्फ सुबह आँख खुलने से लेकर रात में बिस्तर पर जाने के बाद भी सिर्फ अफवाहों को सुना, देखा, उसे अपने कुतर्कों के माध्यम से जिया। और तो और दूसरे लोगों तक पहुँचाया, हाँ, पहुँचाने का माध्यम अलग-अलग रहा, सोशल मीडिया, न्यूज, न्यूज पेपर और आपस में बेसिरपैर की बातें रहीं।
हमने कभी आत्मचिंतन या आत्ममंथन नहीं किया कि ऐसा क्यों है? ऐसा नहीं कि कोरोना कोई बीमारी नहीं है या वह घातक नहीं या हमें सचेत या सुरक्षित रहने की आवश्यकता नहीं है। हमें सचेत भी रहना है और सुरक्षित भी रहना है और साथ ही साथ अपने परिवार को भी सुरक्षित और खुशहाल रखना भी तो हम महिलाओं की जिम्मेदारी है कि किस प्रकार इस महामारी में भी हम घर-परिवार को धैर्यपूर्वक, संयमित हो कर अपनों को साथ लेकर धीरे-धीरे इस महामारी को मात दें। इसके लिए सबसे पहले तो अपनी सोच में बदलाव लाना होगा, मन में सुविचार लाने होंगे और इन अच्छे विचारों को एक दूसरे तक अनवरत पहुँचाना होगा। जब से इस महामारी ने हमारे बीच अपनी पैठ बनाई है, तब से अनेक जगहों पर जैसे अपने डाक्टर या मनोवैज्ञानिकों से सलाह में सुना होगा कि सकारात्मक सोचिए, आखिर ये सकारात्मक शब्द किस जड़ी-बूटी का नाम है जो हर व्यक्ति इसके लिए सलाह दे रहा है।
सच कहें तो यह किसी जड़ी-बूटी या औषधि से कम भी नहीं, लेकिन यह किसी मेडिकल स्टोर या किराना की दुकान पर नहीं मिलेगी, अगर मिलेगी तो सिर्फ आपके पास, आपकी आंतरिक ऊर्जा के माध्यम से और वह माध्यम है संतुष्टि। जब आप संतुष्ट होंगी, तो शांति स्वयं ही प्रस्फुटित होगी और जब चित्त शांत होगा, तो विचार स्वयं ही सद्विचारों में बदलेंगे। तब हर तरफ़ आपको अच्छाई, खुशहाली या यूँ कहें तो हर जगह हरियाली ही हरियाली दिखेगी और यही हरियाली तो आपको बिखेरनी है आप के अपनों के बीच, जो इन मुरझाए हुए चेहरों को फिर से खिल उठने की शक्ति और चमक प्रदान कर दे। इसलिए अगर बाँटना है तो आप भय, डर, अफवाह आदि की जगह पर प्रेम, खुशी, अपनापन और सहानुभूति बाँटिए। लुटाएँ जी भर के अपने खुशियों के खजाने को, जो कभी कम नहीं होगा। आप जितना देंगी उससे अधिक ही आपको मिलेगा और हम सब इस तरह इस महामारी को पूर्ण रूप से तो नहीं, लेकिन कुछ हद तक तो मात दे ही सकते हैं और हम आधी आबादी, आधी जंग तो जीत ही सकते हैं। यूँ ही हमें आधी आबादी का नाम तो नहीं दिया गया, तो आइए आबाद करें अपने अपनों की दुनिया को।
स्मृति
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
(यह इनकी मौलिक और अप्रकाशित रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)
सकारात्मकता जीवन की सर्वोत्कृष्ट स्थिति है