हरी-भरी वसुंधरा के गुनहगार हैं हम
न जाने कितने घाव सहन किये इसने
सदियों से हमारी विरासत की भागीदार है यह
भूत भविष्य वर्तमान है यह
चोट पायी इन्सान से ऐसी इसने
हो गयी धरा बेहाल
जख्म दिए कितने मानवीय गतिविधियों ने
अरे बस, अब तो रुक जा, देख आज वही धरती
तुम्हें घर पे बिठा के हँस रही है
अब तो सुधर जा, पेड़ पौधों की कदर कर
नहीं तो मानव सहमा डरा ही रहेगा जैविक महामारी से जूझता
प्रकृति को पहचानो वसुंधरा को जानो
अहसान उसके हैं हम पर अनंत
अनादि काल से
वेद पुराणों की भाँति
हमारी संस्कृति की पहचान है ये
यही सिखाती हैं हमें
रामायण महाभारत के मूल्यों की पावनता
वसुंधरा का मान रख मनुज
तो ही उज्ज्वल भविष्य पायेगा
अनंत काल से धरोहर हमारी
पहचान हमारी इस धरा से है
विचलित धरा बनी आज यह
महसूस कर उसका कराहना
सेवा कर धरा की
मेवा मिलेगा
जीवन भर का जीवन भर का
मनीषा वि नाडगौडा
बेलगाम (कर्नाटक)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)