बचपन में मिट्टी की गुल्लक में
सिक्कों का संचय
हर बुरे वक़्त पर
अच्छा वक़्त लाने की कोशिश
सिखायी जाती थी ….
सिखा दिया जाता था
धैर्य, संयम, परहित और
ऐसे ही जीवन मूल्य
पिता और माँ के दिये
एक-एक सिक्के का
अपना महत्व था ….
फोड़ने पर नहीं,
बल्कि नहीं फोड़ने पर
मिलती शाबाशी ने जाने कब
निर्विकार बना दिया
मोह माया से …
कि संतुष्टि ही परम आनन्द
बन गया…..
गुल्लक फोड़-फोड़ कर
खाते-पीते, जीते, हँसते
खिलखिलाते हुए देखा
लोगों को …..
आलीशान रहन-सहन देखा
जायदाद बनाते देखा
जोड़ों की रुमानियत देखी
उन सबकी एक कहानी देखी….
पर याद रही गुल्लक न फोड़ने
पर मिलने वाली शाबाशी
मोह माया के आगमन के
पूर्व ही अपनी सम्पदा
सँजो लेने का सुख……
अब जब उम्र के ढलान पर
गुल्लक तोड़ने का सुख समाप्त है
तोड़ ही दें शाबाशी की
गाथाओं को …
सिक्के बिखर गये हैं
इनका अब कोई मोल नहीं
वक़्त बदल गया है…..
अब कोई प्रेमचन्द का वैद्य
दुश्मन को चुपचाप
दवा देकर नहीं निकलता
कोई हामिद दादी के लिए
चिमटा नहीं खरीदता
कोई खड़क सिंह घोड़ा
नहीं लौटाता
कोई पंच परमेश्वर नहीं होता
क्योंकि पुराने सिक्के नहीं
चलते बाज़ार में…..
ऑनलाइन शॉपिंग के
दौर में ….
गुल्लक आउटडेटेड हो गये हैं…..
वर्षा रावल
रायपुर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)