जब भी सत्यजीत रे की फिल्मों की बात होगी, पथेर पांचाली का नाम सबसे ऊपर रखा जायेगा। वैसे तो इस फिल्म का हर एक कलाकार अविस्मरणीय है, लेकिन सर्बजया इन सभी चरित्रों की धुरी है।
सर्बजया केवल पथेर पांचाली में ही नहीं, बल्कि अपू त्रयी की तीनों फिल्मों में अहम किरदार के तौर पर सामने आती है। सर्बजया गरीब, लेकिन स्वाभिमान से भरी स्त्री है। परेशानी में आने पर वह घर के बर्तन-भांडे बेच देती है, लेकिन किसी के सामने हाथ नहीं फैलाती। पड़ोस की स्त्री जब उसकी बेटी दुर्गा पर चोरी का आरोप लगाती है, तब वह उस आरोप को सहन नहीं कर पाती और दुर्गा की पिटाई कर अपना क्षोभ प्रकट करती है। वह निर्दयी नहीं है, परंतु आर्थिक कारणों से ‘पिशी माँ’ को घर में नहीं रख पाती।
वह अपने पति के सुख-दुख की सच्ची साथी है। अपने पति के हालात को समझते हुए वह अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगती। एक कुशल गृहिणी की तरह वह तिनका-तिनका जोड़ कर घर बनाना जानती है। घर की स्थिति खराब होने पर उसका पति धन कमाने चला जाता है। ऐसी स्थिति में घर और बच्चों को सँभालने की पूरी जिम्मेदारी सर्बजया पर आ जाती है। घर का कुछ हिस्सा गिर जाता है और बेटी की मौत हो जाती है। परंतु वह मजबूती से खड़ी रहती है।
पथेर पांचाली के एक दृश्य में जब हरिहर कमा कर घर लौटता है, तब सर्बजया उससे कुछ नहीं कहती। लेकिन जब वह दुर्गा के लिए लायी हुई साड़ी दिखाता है, तब सर्बजया के धैर्य का बाँध टूट जाता है। सत्यजीत रे ने नारी चरित्र के प्रति अपनी समझ को यहाँ साबित कर दिया है।
पति के बीमार पड़ने पर वह दिन-रात उसकी सेवा करती है।
पति की मृत्यु के बाद भी वह परिवार को बिखरने नहीं देती। वह दूसरों के घर में काम करती है, ताकि उसके पुत्र का भविष्य नष्ट न हो। पुत्र बिगड़ न जाये, इस डर से वह समृद्ध बंगाली परिवार का साथ छोड़ कर अपने दूर के रिश्तेदार के साथ गाँव चली आती है। वह बेटे को पुजारी बनाना चाहती है, परंतु वह शहर जा कर आगे पढ़ना चाहता है। बेटे की इच्छा के मुताबिक वह उसे शहर भेज देती है। बेटे के भविष्य की खातिर वह अपने स्वप्न को तो भुला ही देती है, साथ ही अकेलेपन को भी अपना लेती है। लेकिन, उसके जीवन का आधार उसका पुत्र जब मानसिक रूप से उससे दूर होने लगता है, तब वह विचलित हो जाती है। वह बीमार रहने लगती है।
फिल्म अपराजितो में कई बार यह दिखाया गया है कि रेलगाड़ी की आवाज सुनते ही सर्बजया घर से बाहर निकल आती है। वह जानती है कि उसका पुत्र नहीं आ रहा है, फिर भी उसे ऐसा आभास होता है कि उसका पुत्र आ रहा है। वह एक पेड़ के नीचे चटाई पर बैठी रहती है और दूर गुजरती रेलगाड़ी को देखा करती है। उपरोक्त दृश्यों के माध्यम से सत्यजीत रे ने एक माँ के हृदय को समझने की अपनी क्षमता को दिखाया है। बीमार और अकेली होने के बावजूद वह अपने पुत्र को नहीं बुलवाती और उसी हालात में उसका स्वर्गवास भी हो जाता है।
अपू त्रयी की सर्बजया हर भारतीय घर में रहने वाली स्त्री है, हर बेटे के माँ की तरह है। एक पति की पत्नी और एक बेटे की माँ के रूप में उसका चरित्र बहुत ऊँचाई तक पहुँचता नजर आता है और इसका श्रेय पूरी तरह सत्यजीत रे को जाता है।
प्रज्ञा चौबे
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र https://satyajitray.org/ से साभार)