जीवन संझा की देहरी पर
आज बैठी सोच रही हूँ मैं
श्रांत, क्लान्त तन मेरा मन मेरा
अवसान की ओर ढलते ढलते
धूमिल होता जा रहा देख रही हूँ मैं
दूर कहीं बालकिरणों जैसी
सुनहरी लालिमा लिये वो
अल्हड़, खिलंदड़ा सा मासूम
बचपन हँस हँस कर बुला रहा
इशारे से फिर अपने पास मुझे
खुली आँखों के सपने जैसा वो
बीता शैशव दिखा रहा फिर मुझे
जीवन का प्रथम प्रहर देखती हूँ मैं
शोख अल्हड़ कैशोर्य का वो,
सिहरता हुआ तन और मन,
खुद ही शरमाना खुद इठलाना
सिंदूरी तन मन वो सुहाग भरी रातें
आँखों आँखों में होती रसीली बातें
तन से फूटे वो प्यार के नन्हें फूल
स्नेह और ममता में गई सब भूल
वात्सल्य और सुहाग से भरा हुआ
जीवन का दूसरा प्रहर देखती हूँ मैं
फिर आया जीवन का तीसरा प्रहर
यौवन की तीखी धूप ढल रही है
जीवन के तीसरे प्रहर में संझा देहरी पर बैठी हुई गुन रही हूँ मैं
कटती जायेगी धीरे से जीवन डोर
होगी फिर से जीवन की नयी भोर
खुली आँखों से फिर से प्रथम प्रहर की नयी सुनहरी भोर देखूँगी मैं।।
नीलिमा मिश्रा
काँकेर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)