कहानी- फड़फड़ाते पन्ने

Mind and Soul

माँ….माँ….कहाँ हो…..लगभग चिल्लाते हुए अमिय अपनी माँ को पुकारता हुआ रसोई में गया। माँ सब्जी काट रही थी।

क्या हुआ अमिय? कहते हुए माँ जैसे ही पलटी, वैसे ही अमिय के चेहरे की खुशी हैरानी में बदल गयी।

अमिय- यह क्या हुआ माँ…माथे पर पट्टी? फिर पापा ने…..

माँ- कुछ नहीं रे, गिर गयी थी। चल बता न, जो बताने के लिए इतना उतावला था।

माँ ने बात बदलते हुए कहा।

अमिय ने गहरी साँस छोड़ी और माँ को खींचते हुए ड्राइंग रूम में ले आया। सोफे पर पड़े बैग को खोला और एक साड़ी निकाली।

अमिय- माँ देखो साड़ी, तुम्हारे लिए लाया हूँ। अब देखना, मैं तुम्हारे लिए हर खुशी लाऊँगा। यह कहते हुए अमिय की आवाज थोड़ी दब सी गयी। फिर गले को साफ करते हुए बताया, माँ, आज मेरी नौकरी पक्की हो गयी। साथ ही पगार भी बढ़ गयी। इतना कहते हुए उसने माँ के पैर छुए।

माँ उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ फेरते हुए सोफे पर बैठ गयी। इस दिन का कितने दिनों से इंतजार था।

फिर अचानक से अमिय ने एक फाइल माँ की ओर बढ़ा दी।

माँ ने आश्चर्य से देखा, पन्ने पलटे, चौंक गयी, क्या है अमिय यह?

अमिय- जो तुम देख रही हो, तलाक के कागज, जो तुमको बहुत पहले ही करना चाहिए था।

माँ- तलाक क्यूँ, जीवन तो कट गया, अब क्यों?

अमिय- नहीं माँ, जीवन अभी बहुत पड़ा है। नये सिरे से कम से कम कुछ क्षण तो अपने लिए जियो, पापा ने कभी तुमको इंसान नहीं समझा। हमेशा ही चीखना, चिल्लाना, मारना ….

रमा ने टोकते हुए कहा- क्या हुआ अमिय, औरत बन कर जन्म लिया है, सहना पड़ता ही है घर के सुख और शान्ति के लिए। रमा आँखों के आँसू छुपाने के लिए उन्हें साड़ी के कोर से पोंछती हुई कहने लगी, इस बुढ़ापे में अब उनको छोड़ कर क्या करूँगी। वह रह भी नहीं पायेंगे।

अमिय- रह नहीं पायेंगे? इतने दिनों से अन्याय, अत्याचार सह कर तुम जी सकती हो, तो कुछ दिन उनको भी तुम्हारे बिना रह कर देखना चाहिए। एक बार तो सोचना चाहिए कि तुम भी हाड़-माँस की इंसान हो, तुम्हारे अन्दर भी दिल है। वह खुद को क्या समझते हैं?

पुरुष….खुद को पुरुष समझते हैं, रमा अपने बेटे से बोली। तेरे दादा जी, ताऊ जी, सभी ऐसे ही करते रहे। गाँव से शहर में आ जाने से और पैसा कमा लेने से मानसिकता नहीं बदलती। पैसा लोगों के गुरूर को बढ़ाता है। सारी दुनिया के सामने वह एक जेंटलमैन हैं, पर घर में वही गँवार इंसान, जिनकी नजर में स्त्रियाँ पैरों की जूती से ज्यादा कुछ नहीं। आज मैं तलाक दूँगी, तो घर की इज्जत का मजाक बन जायेगा। सभी को लगेगा, बुढ़ापे में बौरा गयी हूँ।

माँ, मैंने देखा है तुमको घुटते हुए। रात में जब मैं सोया रहता, तुम अपने कमरे से रोते हुए आती थी और मुझे को सीने से लगा कर सो जाती थी। रात भर में तकिया आँसुओं से भीग जाता था। आँसुओं की उस नमी ने ही मेरी नींदों को और मेरे सपनों को सींचा है।

वह दिन भी याद है जब सुमना मौसी ने कहा था कि तुम तलाक दे दो। तब मैं छोटा था। तलाक का मतलब पूरी तरह से समझ नहीं पाया। पर मुझे तुम्हारा जवाब याद है। तुमने मौसी से कहा था, दीदी अमिय छोटा है। उसे पिता चाहिए। तलाक देना आसान है, पर बिना पिता के बच्चे को पालना बहुत मुश्किल। मैं खुद के लिए बच्चे को पिता से दूर नहीं कर सकती। वे बातें मेरे कानों में आज भी गूँजती हैं।

पर माँ, अब तक समझ नहीं सका, पापा सबके सामने तुमसे कितना अच्छा व्यवहार करते हैं और अकेले में …। तुमने मेरे लिए बहुत सहा है।

मैं इंतजार कर रहा था कि जब बड़ा हो जाऊँगा, नौकरी करूँगा, तब  से हमेशा ही तुमको खुश रखूँगा। इस बार अमिय ने आवाज को मजबूत करते हुए कहा, अब समय आ गया है माँ। तुम्हारी खुशी का दरवाजा यहीं से खुलता है। तुम खुली हवा में साँस ले सकोगी। खुल कर गा सकोगी, कोई नहीं रोकेगा, किसी की नींद में खलल नहीं पड़ेगा। अपने दोस्तों और सहेलियों के साथ फिल्म देखोगी, घूमोगी, जो इच्छा करोगी, इस चहारदीवारी से, कैद से और इस अजीब से रिश्ते से सदा के लिए बाहर निकल सकोगी।

पता नहीं कब से, पिता पर्दे के पीछे से खड़े हो कर दोनों की बातें सुन रहे थे। अचानक से बाहर निकले और दोनों के सामने खड़े हो गये। बेटे के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, शाबाश बेटे, नौकरी पक्की होने की बधाई। सामने पड़े तलाक के कागज के पन्ने फड़फड़ा रहे थे। उन्होंने कागज उठाये और अपनी पत्नी की ओर देखा। वह काफी घबरायी हुई थी। बेटे के पास सिमट गयी। बेटा आज उसके लिए सबसे मजबूत ढाल था।  बेटा भी पिता को देख रहा था। आज वह माँ पर कोई अन्याय होने नहीं देगा। पहली बार वह पापा का विरोध करने वाला था।

पिता ने हाथ बढ़ाया, अमिय के पॉकेट से पेन निकाली और बिना कुछ कहे तलाक के कागज पर हस्ताक्षर कर दिये। फिर सिर ऊपर करके कहा, जियो, खुश रहो, इतना सहने के बजाय एक बार कह सकती थी, समझा सकती थी।  मैंने अपने पिता को ऐसे ही करते देखा था। घर के लोगों का कहना होता था कि पुरुष का पुरुषार्थ ही है नारी पर अपना वर्चस्व। दरअसल मैंने जो देखा, वैसा ही किया।  और तुम भी वैसा ही अनुसरण करती रही। बजाय उसके, एक बार हमें बात करनी चाहिए थी। उसके लिए माहौल बनाने की जरूरत थी। मुझे एहसास ही नहीं था कि मैं जो कर रहा हूँ, ठीक नहीं कर रहा।

चश्मा पोंछते हुए दिनेश उठा, आज से पहले वह कभी इतना कमजोर नहीं लगा। वह वापस अपने कमरे की ओर मुड़ गया। तलाक के कागज के पन्ने मेज पर वैसे ही फडफड़ा रहे थे।

वनिता वसंत झारखंडी

कोलकाता (पश्चिम बंगाल)

(यह इनकी मौलिक रचना है)

 

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