एक कविता- लघु दिया
सूरज आगे लघु दिया क्या
यही अमावस पूर्ण ओम हुई
ज्ञान ज्योति की उज्जवल किरणें
भर प्रकाश यह व्योम हुईं
छुई-मुई नन्हीं सी बाला
झूम-झूम कर मौन हुई
ना जाने किस प्रीत में पागल
लहक-लहक यही होम हुई
भर आकूत आवर्त घिरी रही
फिर भी प्रखर हो धूम्र हुई
श्रम साध्य है तेल औ बाती
तम, चीर यही ओम् हुई
पवन शोर संग रार करें यह
चंचला लौ सार्वभौम हुई
ले सुनहली मादल सी कांति
यही कंचन काया मोम हुई
ले धनक अँधियारे द्वारे
पथ-पथ पर विलोम हुई
हंँस-हंँस कर जल जाती है यह
दे, पूर्ण आहुति हरिओम् हुई
नेह उजास उड़ेल शिखा यहाँ
मानस मन अनुयोम हुई
दे कर पावन कर्म संदेशा
चेतन मन शिव होम हुई
एक मुक्तक
ये अँधेरों का शहर है, दीप आ तुझ को जला दूँ
धुंध सा वीरान घर है, दीप आ तुझ को जला दूँ।
कौन से तूफान की कीमत चुकानी है हमें
रोशनी यूँ बेखबर है, दीप आ तुझ को जला दूँ।
ज्योति नारायण
हैदराबाद (तेलंगाना)
(ये इनकी मौलिक रचनाएँ हैं)