औरतें
सूनी आँखें लिए
मुँह भरकर दर्द
रोती हैं
देहरी पर…..
फिर आपस के
दर्द को बराबर
तोलकर
बाँट लेती हैं,
और हल्की होकर
भर लेती हैं
खुशियों वाला
ऑक्सीजन…….
जिसे देहरी से
अंदर जाकर
बनना ही है
अंततः विषैली
कार्बन डाइऑक्साइड…
फिर छटपटाती
कलपती
लौटना है देहरी पर,
जहाँ औरतें बैठी हैं
और भर रही हैं
पोर पोर में
ऑक्सीजन….
वर्षा रावल
रायपुर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)