युगों बीत गए
छलछलाती नदी को देखे
बहुत पानी हुआ
करता था
उसके दिल मे ….
अपना प्रेम दे देने को
आतुर..
ममता सम्वेदना से लबरेज
पूरी तरह स्वाभाविक
वास्तविक…..
फिर दौर आया
रेत के सैलाब का
नदी न रहने दी नदी ,
सुखा दिया छलछल पानी को
वैसे ही मरने लगी नदी
जैसे भरी हुई स्त्री मरती है
सूखेपन से…..
छलछल करती नदी
जैसे ढेर सारे रचनाकार
अपनी अपनी नमी के
साथ, अपनी तरलता लिए
लिखते थे कविता
दिल की नदी से…..
इधर रेत के सैलाब
सुखाते रहे
छलछल करती नदी को,
जिनका आना अब भी
बदस्तूर जारी है….
ऐसे मे निश्चित ही
एक दिन
सूख जाएगी कविता की नदी……
वर्षा रावल
रायपुर (छतीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)