मैं वृक्ष हूँ
अपनी आत्मकथा सुनाता हूँ
अपने मन की बात बतलाता हूँ
सदियों से खड़ा साक्षी हूँ
हर सुख-दुख के लम्हों का
द्रष्टव्य मैं ही तो गवाक्षी हूँ
सभ्यता की उत्पत्ति देखी
विनाश को भी देख रहा हूँ
मौन साधना की परिणिति
अविचल ख़ुद को रख रहा हूँ
जितना ऊपर बढ़ जाता हूँ
उतना गहरा पृथ्वी में पाता हूँ
सब को अपने संग रख के
रिश्तों को निभाना सिखाता हूँ
तने फूल फल पत्ते डालियों को
रस रूप रंग से सुंदर सजाता हूँ
कभी सावन की रिमझिम फुहार
कभी पतझड़ का रुदन संसार
मैं ही तो हूँ पृथ्वी का श्रृंगार
आत्मशक्ति को कर परिष्कार
हर तूफ़ां का दर्द झेल जाता हूँ
संवदेना पीड़ा व्यथा सुखानुभूति
अनंत भावों को सजाता हूँ
कभी हार कर जीत पाता हूँ
कभी जीत कर हार जाता हूँ
तभी तो अनुभवों का खान
विशाल वटवृक्ष कहलाता हूँ
मनोबल नहीं कभी टूटने देता
हर मुसीबत को हराता हूँ
पंछियों का आशियाना हूँ मैं
विश्वास का शिला आधार
झूलते मेरे तनों पर निर्भीक निसंशय
चहचहाते आनंदित हो सरोबार
राहगीर सुस्ताते शीतल छाँव पाते
शांत सुकून मिलता उन्हें हर बार
सैकड़ों दुआएं देकर चल पड़ते
जीने का यही मकसद सुखद सार
शुद्ध वायु स्वच्छ परिवेश लिए
औषधि का मैं हूँ अमूल्य भंडार
आज साँसों के संरक्षण के लिए
मैं हूँ सुदृढ़ सख़्त सक्षम कर्णधार
और नहीं चलाना आरी मुझ पर
निवेदन मेरा मानव से बार-बार।
मधु भूतड़ा ‘अक्षरा’
जयपुर (राजस्थान)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- मधु भूतड़ा ‘अक्षरा’ के सौजन्य से)