तन से गृहस्थन, मन से विरागी
कभी चाह उसमें नहीं कोई जागी।
हर दिन सबेरे दबे पाँव उठना
आँखों के सपनों का चूल्हे पे तपना
गर्मी या सर्दी ना महसूस करना
सब्ज़ी के टुकड़ों सा चुपचाप कटना
नहीं उसको फुरसत, रहे भागी-भागी
कभी चाह उसमें नहीं कोई जागी।
बिस्तर की सिलवट मन पे छपी है
कभी बात अपनी नहीं कह सकी है
नहीं नायिका वो किसी भी गज़ल की
चली जा रही है मगर वो थकी है
ये खामोशियाँ ले के आएँगी आँधी
कभी चाह उसमें नहीं कोई जागी
तन से गृहस्थन, मन से विरागी।
प्रीति त्रिपाठी
नई दिल्ली
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)