नारी का एक सुन्दर रूप
जल की तरह
सूर सरिता कूल है तू , सलिल सुचिता संचिता,
नीर है और क्षीर भी है, धीर वीर सी सविता ।
बह रही अच्छुण धरा जो, वो ही है तू अमरता,
गिरि शिखर को लाँघती, कहीं धार धार सी धारिता ।
जागृति अध्याय प्रथम तू, चेतना चैतन्यता,
और दिवाकर अर्द्धय तू ही,तू मूल की संचियता।
शांत चित्त निशांत आगर, हो प्रलय की गहरनता ,
मुक्त तेरी है प्रवाहनी, वहीं बंदी सी तू बंधिता ।
रेत कंटक पे है बहती, वो तेरी है समरता,
है प्रभंजन गति वो तुझ में, यामिनी सी मदरिता ।
प्रीत की भरती पुहुप है, तू ही है वह मधुरता ,
पलक पाँवड़े नेह सिंचित, तू ही इड़ा सी जीविता ।
नीति रीति संग लिये तू, अखंड शिवा की रमणिता,
शापित युगों से होके भी, तू ही मृदु स्पंदिता ।
घोर अनल उर में छुपाये, दामिनी दाहक जरा
घन गहर की हो विकलता,क्षिति मिलन संप्रिता ।
तू धरा की गर्भ पुलक है, ये तेरी विशालता ,
कोर के कण कण में सिंचित, सबकी तू प्रतिबिंबिता।
दान इरा वरदान देती,तू हृदय की पवित्रता ,
नील छांँव की तू अचल है, बूँद-बूँद सी पोषिता ।
भैरवी अविनाश रुपा,तू ही करुणामयी आद्रता,
त्याग तप और हो तपस्या, तू ही ओम विलोमता ।
है अचल में तू ही चल चल,पथ की तू प्राजक्ता ,
वाणी की वीणा है तू ही सावित्री सुहासिता।
ज्योति नारायण
हैदराबाद (तेलंगाना)
(यह इनकी मौलिक रचना है)