नारी, एक चमकीला तारा, टूट कर गिरता हुआ

नारी नारी एक शक्ति है, श्रद्धा है, जननी है, धरती है। फिर शापित क्यों है? विचलित मन से निकली है यह कविता क्या ऐसा होना उचित है? नारी बेरोशन एक चमकीला तारा टूट कर गिरता हुआ, सड़ी-गली परम्परा की लपलपाती लपटों के बीच घिरी झुलसती हुई कोई एक स्मृति, किसी सरोज की खण्डित प्रतिच्छवि। सदियों-सदियों […]

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उलझन नारी जीवन की

कैसी है ये उलझन, भागा-भागा फिरे है मन कर्तव्यों के जीवन में, कहीं नहीं मिले है चैन एक को पकड़ूँ, दूजा खोऊँ तकिया गीला, नित सिसकूँ रोऊँ किससे कहूँ मैं दिल की बात अपने भी सोचें, नहीं मुझमें जज़्बात। बँट गई ज़िन्दगी मेरी टुकड़ों की खुशियाँ मेरी हर कोई सही अपनी दृष्टि में गलत हूँ […]

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नसीहत

  पुरुष चाहता है अपनी नसीहतों से स्त्री को मूर्ख साबित करना। बार-बार आहत करके अपनी जीत का एहसास कराना। स्त्री के भीतर जो भी मूल्यवान है उसे तहस-नहस करना। वह संस्कारों से बँधी पिसी रहती है घुन की तरह। उसका अधिकार रिश्तों को समेट कर रखना ही है। पुरुष जानना ही नहीं चाहता कि […]

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बस इतना ही

  कब चाहे मैंने महल चौबारे, कब चाहा हीरे-पन्नों का बोझ, कब चाहा मखमली गद्दों सा जीवन। चाहा था तो केवल दो बूँद प्यार मेरे आँसुओं के खारेपन का स्वाद बदलने के लिए चुटकी भर मिश्री के बोल। माँगा था एक सुगंध भरा फूल, बगीचा नहीं। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना […]

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धरती जैसा धैर्य है, नभ सा है अभिमान

सबला है अबला नहीं, नारी जग की शान। मीरा, राधा, गार्गी, वह रजिया सुल्तान।। नारी के सम्मान में, नहीं सिर्फ जयगान। दोयम दर्जे की नहीं, है इसकी पहचान।। कलम-कटारी-बेलना, है यह स्वर्ण-विहान। जन्म विश्व को दे रही, यह ईश्वर वरदान।। इससे जीवन सुलभ है, यह सुख का है धाम। धरती जैसा धैर्य है, नभ सा […]

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देह के सौजन्य से विरहिन सरीखा रूप पाऊँ

रात्रि की निस्तब्धता में, चाँदनी के द्वार जाऊँ सूर्य के मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ शून्य की मानिंद, जीवन फिर उसी से हार के धमनियों में क्षोभ बहता, चक्षु सावन वारते देह के सौजन्य से विरहिन सरीखा रूप पाऊँ सूर्य के मनुहार में फिर से प्रभाती राग गाऊँ गीत लिखने की तपस्या, फिर […]

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नारी मन मत तोलिये, उसका नभ विस्तार

नारी से घर होत है, नारी से संसार। नारी बिन नर भी कहाँ, नारी है आधार।। नारी ही सम्हालती, संस्कृति संस्कार। इस सृष्टि पर हो सदा , नारी का अधिकार।। देवी दुर्गा लक्ष्मी, नारी हर अवतार। पत्नी, बेटी है बनी , माँ बन करती प्यार।। नारी मन मत तोलिये, उसका नभ विस्तार। बन शक्ति शिव […]

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स्त्री के बारे में एक कविता

बनी रहती है कठपुतली उसका सब कुछ है उधार का।। कहाँ अपने होते हैं पाली हुई चिड़िया के पंख। कहाँ होती है उसकी अपनी कोई सोच। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना है)

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आँसू

नहीं मचाती शोर कभी ये, चुपके ही रह जाती। अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।। लिए गठरिया कर्तव्यों की, प्रतिपल चलती नारी। माँ बेटी भार्या बनकर नित, अपना जीवन हारी। अंतर्मन में चीख दबाकर, दुख सारे सह जाती। अश्रु भरी अँखियों की पीड़ा, व्यथा कथा कह जाती।।1।। नहीं भावना समझे कोई, स्वार्थ […]

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स्त्री पर एक कविता

स्त्री! क्यों हो जाती हो बार-बार निष्क्रिय, लेती हो सहारा बैसाखियों का, क्यों बन जाती हो जूड़े मे लटकी हुई वेणी। महकती हो फिर से वाणी बनने के लिए। क्यों बिछ-बिछ जाती हो दूब की तरह।   क्या नहीं जानती तुम अपना रास्ता स्वयम् तलाशना। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना है) […]

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