स्त्री पर एक कविता

Mind and Soul

स्त्री!

क्यों हो जाती हो

बार-बार निष्क्रिय,

लेती हो सहारा

बैसाखियों का,

क्यों बन जाती हो

जूड़े मे लटकी हुई वेणी।

महकती हो फिर से

वाणी बनने के लिए।

क्यों बिछ-बिछ जाती हो

दूब की तरह।

 

क्या नहीं जानती तुम

अपना रास्ता स्वयम् तलाशना।

विद्या भंडारी

कोलकाता (पश्चिम बंगाल)

(यह इनकी मौलिक रचना है)

 

(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)

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