नारी
नारी एक शक्ति है,
श्रद्धा है, जननी है,
धरती है।
फिर शापित क्यों है?
विचलित मन से निकली
है यह कविता
क्या ऐसा होना उचित है?
नारी
बेरोशन
एक चमकीला तारा
टूट कर गिरता हुआ,
सड़ी-गली परम्परा की
लपलपाती लपटों के बीच घिरी
झुलसती हुई कोई एक स्मृति,
किसी सरोज की
खण्डित प्रतिच्छवि।
सदियों-सदियों
और युगों-युगों तक से
संध्या के आंगन में
सूर्यास्त का कुहासा ओढ़कर
लेटी हुई धूप।
आदि से अंत तक
इसकी कहानी
आँचल में दूध और आँखों में पानी
ममता की कोख से अंकुरित
हुई श्रद्धा को झुलसा रही हैं
माचिस की तीलियाँ।
कहीं
पाशविक प्रवृत्तियों के
घिनौने हाथ नोचते हैं
क्रूरता से इसके जिस्म,
कहीं
इसकी जली अधजली लाश को
फूलों से सजा कर
निकालते हैं
ये दहेज के लोभी
इसकी अर्थियाँ।
कब तक नारी को
जन्म लेने से पहले ही
चीरती रहेगी कैंचियाँ-छुरियाँ,
नारी होने का अर्थ क्या केवल
मंदिर की देवी होना है या
पत्थर की मूरत होना।
इस तरह की स्थापना
ऐसा प्रतिष्ठापन
जिस पर फूल तो चढ़ाये जा सकते हैं
सावन के गीत भी गाये जा सकते हैं,
लेकिन स्त्री के अस्तित्व में इसे
स्वीकारा नहीं जा सकता है।
कब तक यह गूंगी बनी रहेगी
और कब तक बनी रहेगी
कृपापात्रा,
कब तक प्रतीक्षारत रहेगी
कि आयेगा कोई राम
जिसकी पगधूलि से
होगा इसका उद्धार।
कब खुलेगा इसके भविष्य
का द्वार
और यह पत्थर का
कलेवर त्याग कर
बन जायेगी
हाड़-मांस और संवेदना से
भरी एक नारी।
हाँ, सिर्फ एक नारी
मानवी के रूप में।
नहीं-नहीं अब और नहीं
इसे न सृष्टि की कृपा चाहिए
और न पुरुष दृष्टि की दया याचिका चाहिए,
अब इसे बस
मनुष्य होने का वांछित
मन सुख प्रमाण चाहिए,
मनुष्यत्व का न्याय चाहिए
न्याय चाहिए, न्याय चाहिए।
यह अगर ऐसी ही मरती रहेगी
तो मरना होगा इसके साथ यावत जगत को
मरना होगा इसके साथ
इस ब्रह्माण्ड को।
फिर?
ज्योति नारायण
हैदराबाद (तेलंगाना)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)