कैसी है ये उलझन, भागा-भागा फिरे है मन
कर्तव्यों के जीवन में, कहीं नहीं मिले है चैन
एक को पकड़ूँ, दूजा खोऊँ
तकिया गीला, नित सिसकूँ रोऊँ
किससे कहूँ मैं दिल की बात
अपने भी सोचें, नहीं मुझमें जज़्बात।
बँट गई ज़िन्दगी मेरी
टुकड़ों की खुशियाँ मेरी
हर कोई सही अपनी दृष्टि में
गलत हूँ मैं हर चिट्ठी में
क्यों बेटी ब्याही माँ तुमने
क्यों बाँट दिया टुकड़ों में।
मैं मैं ही हूँ, परिस्थितियों की मारी
बेटी, बहन, पत्नी के टुकड़ों में नारी
किसको कैसे समझाऊँ अपनी बात
क्यों नहीं समझे कोई मेरे जज़्बात
हर पल तरसती हूँ माँ तुम तक आने को
एक बेटी- एक बहन का कर्तव्य निभाने को।
गृहस्थी के साथ माँ
मुझे तुम्हारा सम्मान भी तो प्यारा है
उसके साथ यदि कोई खेलेगा
तो कैसे ये मुझे कबूल होगा
मैं तुम्हें तोड़ना नहीं चाहती
पर तुमसे दूर होना भी नहीं चाहती।
डॉ. वंदिता श्रीवास्तव
गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
(यह इनकी मौलिक रचना है)