विद्या भंडारी के दो मुक्तक

मुक्तक- एक रूठती धरा को मनाने को, आओ कुछ मनुहार करें, धरती को फूलों से भर दें,आओ पश्चाताप करें। धरती पर है सब कुछ सुंदर, सुंदरता का मोल करें, मानवता को जागृत करके, अपनी धरा गुलजार करें । मुक्तक- दो त्राहि-त्राहि की इस धरती को, नये सूर्य की किरण मिले, नैतिकता की फसलें बोएं, साहस […]

Continue Reading

विद्या भंडारी की रचना- समय

वक्त के समंदर में आये कई सिकन्दर और कई डूब गये कोई बचा नहीं पाया। समय के बेलगाम घोड़े को कोई जंजीर से बाँध नहीं पाया। वक्त की आँधियाँ कितना कुछ लील गयीं कोई रोक नहीं पाया। शहंशाह हो या वैज्ञानिक समय के बदलाव के आगे ठहर न पाया। वक्त की पुकार ब्रह्मांड की पुकार […]

Continue Reading

नसीहत

  पुरुष चाहता है अपनी नसीहतों से स्त्री को मूर्ख साबित करना। बार-बार आहत करके अपनी जीत का एहसास कराना। स्त्री के भीतर जो भी मूल्यवान है उसे तहस-नहस करना। वह संस्कारों से बँधी पिसी रहती है घुन की तरह। उसका अधिकार रिश्तों को समेट कर रखना ही है। पुरुष जानना ही नहीं चाहता कि […]

Continue Reading

बस इतना ही

  कब चाहे मैंने महल चौबारे, कब चाहा हीरे-पन्नों का बोझ, कब चाहा मखमली गद्दों सा जीवन। चाहा था तो केवल दो बूँद प्यार मेरे आँसुओं के खारेपन का स्वाद बदलने के लिए चुटकी भर मिश्री के बोल। माँगा था एक सुगंध भरा फूल, बगीचा नहीं। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना […]

Continue Reading

अस्मिता

कितना सुख था तब रहती थी डरी-डरी, सह लेती थी सब कुछ। किन्तु जब से खोजने लगी हूँ अस्मिता एक ताले की दो चाबियों की तरह पड़ी रहती है मुस्कान दोनों की पाकेट्स में। जरूरत पड़ती है जब कभी खोल लेते हैं ताला अपनी-अपनी चाबी से। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना […]

Continue Reading

स्त्री के बारे में एक कविता

बनी रहती है कठपुतली उसका सब कुछ है उधार का।। कहाँ अपने होते हैं पाली हुई चिड़िया के पंख। कहाँ होती है उसकी अपनी कोई सोच। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना है)

Continue Reading

स्त्री पर एक कविता

स्त्री! क्यों हो जाती हो बार-बार निष्क्रिय, लेती हो सहारा बैसाखियों का, क्यों बन जाती हो जूड़े मे लटकी हुई वेणी। महकती हो फिर से वाणी बनने के लिए। क्यों बिछ-बिछ जाती हो दूब की तरह।   क्या नहीं जानती तुम अपना रास्ता स्वयम् तलाशना। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना है) […]

Continue Reading

स्त्री और पौरुष

तुम्हारे पौरुष के पाँव जिन्दा हैं क्योंकि मैंने समेट रखा है अपने पाँवों को रेशम के कीड़ों की तरह। तुम्हारे पौरुष की आँखें जिन्दा हैं क्योंकि मेरी आँखें झुकी हुई हैं शर्मीली दुल्हन की तरह। तुम्हारा पौरुष जीवित है क्योंकि मैंने अपनी अस्मिता को छिपा रखा है अपने आँचल में। तुम्हारा सिर गर्व से ऊँचा […]

Continue Reading