स्तुति करूँ वाग्देवी की,
या साधना महादेवी की।
पंत, दिनकर और निराला
या प्रेरणा लूँ अज्ञेय से,
कुछ लिखूँ, क्या लिखूँ
कैसे पीछे हटूँ अपने ध्येय से।
मन में विचार नित नए कौंधते,
रहीम, सूर, तुलसी सा लिखूँ
या सीख लूँ,
रसखान और हरिऔध से।
कहाँ से सीखूँ भाषा शैली,
मुझको शरण में लें मैथिली।
शब्दों के सागर से मोती चुन
मैं थाती अपनी भर लाई।
फिर भी मैं बन ना सकूँगी,
कभी मीराबाई की परछाई।
ना भूषण, बिहारी और
ना ही भारतेन्दु,
मै तो हूँ पन्ने पर बिखरी
स्याही की छोटी सी बिन्दु।
ऐसी प्रतिभा नहीं मुझमें कि
बन जाऊँ मैं जायसी
महान विभूतियों के समक्ष
मैं अनकहे अध्याय सी।
कैसे व्यक्त करूँ
अपने हृदय के उद्गार को,
शीश नवाँ कर करती प्रणाम मैं
सभी रचनाकार को।
कैसे जुड़ेगा नाता मेरा
काव्य जगत की खान से
माखनलाल, सोहन लाल या
सुभद्रा कुमारी चौहान से
या मैं वंचित रह जाऊँगी,
अपनी ही पहचान से।
खुद पर हँसूँ बन के
काका हाथरसी
या यकीन रख के खुद पर
बन जाऊँ स्मृति बनारसी।
स्मृति
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- श्वेता श्रीवास्तव)