खेतों की मेड़ों पर ये चली है, तब कहीं जाके ये माँ सी ढली है

Mind and Soul

छू लिया है जिसने हिमालय
उस पर्वतराज का है ताज हिन्दी।
कंठ है, सुर है, है साज हिन्दी,
है करोड़ों की आवाज हिन्दी।।

खेतों की मेड़ों पर ये चली है
तब कहीं जाके ये माँ सी ढली है।
इसकी पहचान हर एक डगर है,
इसकी पहचान हर एक गली है।।

तेलुगू, कन्नड़, तमिल, बांग्ला,
मराठी, उड़िया, पंजाबी हैं बहना।
देश की एकता और भाईचारा
इसका सौंदर्य है इसका गहना।।

इसने लाखों दिलों को मिलाया
इसने ही गाँवों के गीतों को गाया।
इसने पनघट के प्यासे पिया को
देश का दर्द जीना सिखाया।।

इसने ही सपने सजाये हजारों
बनके भारत के माथे की बिंदी।
यूँ तो रानी-महारानी है ये,
इस कदर फिर क्यों बेबस है हिन्दी।।

कितने सागर बनाये गये पर
होंठ सूखे हैं, प्यासी है हिन्दी।
जिसके घूँघट में तारे टँके हैं
उस दुल्हन की उदासी है हिन्दी।।

(फिर भी)

राष्ट्र की चेतना को समेटे
बह रही है निरंतर ये गंगा।
इसकी ताकत की पहचान बन कर
मुस्कुराता रहेगा तिरंगा।।

ज्योति नारायण
हैदराबाद (तेलंगाना)

(यह इनकी मौलिक रचना है)

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