उतार फेंके हैं हमने
वस्त्र लज्जा के
नुकीले कर लिए हैं हमने
अपने दाँत
अपने नाख़ून
भर ली है हिंसा
अपनी शिराओं में
ताकि कर सकें सामना
उस शिकार का
जिसने नहीं किये नुकीले
अपने दाँत
अपने नाख़ून,
फिर भी
प्रतिरोध करना
जानते हैं
हमे उकसाना
जानते हैं
नहीं देख सकते उनकी
वाहवाही
डरना जरूरी है इन सबका,
इसलिए दहशत फैलाना
ही होगा
बदलनी होगी परिभाषा
लोकतंत्र की
उन्हें बताना होगा कि
भले भर ली हो कलम में
स्याही नीली
पर तुम्हारी स्याही का
रंग लाल ही होगा
रोकना होगा उन्हें
तभी रुक पाएगी
कई पीढ़ी
इनकी नस्ल की
और उनकी आँखों में
भय व्याप्त होगा
हमें होना ही था आदिम
नुकीले करने ही थे
अपने दाँत
अपने नाख़ून
भरनी ही थी हिंसा
अपनी शिराओं में
जो दौड़ रहा है
शरीर में हमारे लेकिन
रक्त रंजित तो होगा वो,
जो मानता है कि
वो सच कह रहा है
सच दिखा रहा है
सच लिख रहा है
सच रच रहा है
वर्षा रावल
रायपुर (छतीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)
(आवरण चित्र- वैष्णवी तिवारी)