नीलिमा मिश्रा की रचना- रीत

कैसी “रीत” है दुनिया की, कि संग संग रहते हुये भी, मिलते नहीं कभी नदिया, झील और सागर के दोनों किनारे, चाँद और सूरज की , युगल जोड़ी है संग संग, फिर भी इनका मिलन है दुश्वारे, राधा कृष्ण एक होते हुये भी, ना मिल पाये कभी , जगत रीत के मारे, राम और सिया […]

Continue Reading

नीलिमा मिश्रा की रचना- देहरी

जीवन संझा की देहरी पर आज बैठी सोच रही हूँ मैं श्रांत, क्लान्त तन मेरा मन मेरा अवसान की ओर ढलते ढलते धूमिल होता जा रहा देख रही हूँ मैं दूर कहीं बालकिरणों जैसी सुनहरी लालिमा लिये वो अल्हड़, खिलंदड़ा सा मासूम बचपन हँस हँस कर बुला रहा इशारे से फिर अपने पास मुझे खुली […]

Continue Reading

नीलिमा मिश्रा की रचना- माटी की व्यथा

मैं तो कच्ची माटी ही थी, तुम्हारे समीप हे मेरे राम, तुमने मुझे अपने रंग में रंग, दिया एक मुझे नया आयाम। ढल गई तुम्हारे साँचे में प्रभु, बन गई मैं तुम्हारी सहगामिनी, मिला तुम्हें चौदह बरस का बनवास, चली संग तुम्हारे बन के अनुगामिनी। दुष्ट रावण के चंगुल से छुड़ाया फिर भी तुम्हारे नैनों […]

Continue Reading

आकाश की नीलिमा में चाँद मधुकलश लिए

आकाश की नीलिमा में, पूनो का चाँद मधुकलश लिए, शुभ्र चंद्रकिरणों की, हो रही वर्षा, देखो अभिमंत्रित प्रज्ञा सी , ज्योत जली, भुवनमोहिनी की आभा लिये, ताल मे सरोज खिली, सुरेश इन्द्र के प्रांगण में, प्रार्थना लिये, देवों की कामना फली, वृन्दावन की रजनी में, रेणूतट पर सौन्दर्य मल्लिका, राधा के मीनाक्षी नयन, चपल हो […]

Continue Reading

जितिया व्रत पर खास पेशकश- माँ की वसीयत और तीन अन्य कविताएँ

माँ के लिए जितिया व्रत (या जीवित्पुत्रिका व्रत) से बड़ा कोई व्रत नहीं होता। आज इस व्रत के मौके पर पेश हैं माँ के कुछ भाव, जो देश की कई कवयित्रियों ने पेश किये हैं। वसीयत छोड़ जाऊँगी वसीयत में अपने संग्रहित किताबों के अनमोल खजाने बेटियों के लिये, अपने तीज-त्योहार अपने संस्कार अपनी परम्परा […]

Continue Reading

प्रेम

क्यूँ झुकता है आसमां, बाँहों में समेटने धरती को, हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ गुनगुनाते हैं भौंरे, चूमने फूलों को हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ दौड़ती है नदी, सागर में समाने, हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ बादल बरसते हैं, पर्वतों पर, हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ आँख […]

Continue Reading