नीलिमा मिश्रा की रचना- माटी की व्यथा

Mind and Soul

मैं तो कच्ची माटी ही थी,
तुम्हारे समीप हे मेरे राम,
तुमने मुझे अपने रंग में रंग,
दिया एक मुझे नया आयाम।

ढल गई तुम्हारे साँचे में प्रभु,
बन गई मैं तुम्हारी सहगामिनी,
मिला तुम्हें चौदह बरस का बनवास,
चली संग तुम्हारे बन के अनुगामिनी।

दुष्ट रावण के चंगुल से छुड़ाया
फिर भी तुम्हारे नैनों मे था संदेह,
यद्यपि रखी मेरे स्त्रीत्व की लाज,
देख शंका गई मैं चिता में प्रवेश सदेह।

आश्वस्त हुये तुम किया मुझे ,
जीवन में फिर सादर स्वीकार,
साम्राज्ञी बनाया अवध की मुझे,
दिया मेरे मातृत्व को नया आकार।

फिर हुई ईश कृपा मुझ पर,
भाग्य पर फूली नहीं समाती थी,
रघुवंश को दूँगी उत्तराधिकारी मैं,
अपने मातृत्व पर मैं इठलाती थी।

परंतु हाय किया मेरा परित्याग तुमने,
किया मुझ अबला पर तुमने अन्याय,
किया था द्रवित तुम्हें अहिल्या ने,
मुझ मातृत्व ढोती को किया निस्सहाय।

रोती कलपती रही मैं वन वन में,
पूछती रही वृक्षों पुष्पों से अपराध,
अग्नि परीक्षा लेकर भी क्या पूरी
नहीं हुई हे प्रियतम तुम्हारी साध।

बरसों बीते अब सुन रही हूँ तुम्हारे,
आने की आहट आ रहे हो स्वीकारने
अपने पुत्रों के साथ साथ मेरा भी,
टूटा, उजड़ा हुआ मेरा भाग्य सँवारने।

नहीं सहूँगी मैं अब फिर कोई बनवास,
तुम्हें मैं अब अपना मुख नहीँ दिखाऊँगी,
अश्रु सूख चले अब इन नैनन के प्रभु,
माटी में जन्मी थी माटी में मिल जाऊँगी

नीलिमा मिश्रा
काँकेर (छत्तीसगढ़)
(यह इनकी मौलिक रचना है)

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