स्त्री पर एक कविता
स्त्री! क्यों हो जाती हो बार-बार निष्क्रिय, लेती हो सहारा बैसाखियों का, क्यों बन जाती हो जूड़े मे लटकी हुई वेणी। महकती हो फिर से वाणी बनने के लिए। क्यों बिछ-बिछ जाती हो दूब की तरह। क्या नहीं जानती तुम अपना रास्ता स्वयम् तलाशना। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना है) […]
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