स्त्री पर एक कविता

स्त्री! क्यों हो जाती हो बार-बार निष्क्रिय, लेती हो सहारा बैसाखियों का, क्यों बन जाती हो जूड़े मे लटकी हुई वेणी। महकती हो फिर से वाणी बनने के लिए। क्यों बिछ-बिछ जाती हो दूब की तरह।   क्या नहीं जानती तुम अपना रास्ता स्वयम् तलाशना। विद्या भंडारी कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (यह इनकी मौलिक रचना है) […]

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कंटकों में भी तुम्हारी प्रीत का मधुमास है

मुक्त सारे बंधनों से आज ये आकाश है मिट गये किन्तु परंतु,दृढ़ हुआ विश्वास है चाँद की शीतल निशा में ख्वाब पोसे जायेंगे भोर की शुभ अरुणिमा में आपका आभास है मिट गये किन्तु परंतु, दृढ़ हुआ विश्वास है देह से वैराग्य तक तुमको सदा धारण किया कंटकों में भी तुम्हारी प्रीत का मधुमास है […]

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बनेगी अपनी पहचान एक दिन

स्तुति करूँ वाग्देवी की, या साधना महादेवी की।   पंत, दिनकर और निराला या प्रेरणा लूँ अज्ञेय से, कुछ लिखूँ, क्या लिखूँ कैसे पीछे हटूँ अपने ध्येय से।   मन में विचार नित नए कौंधते, रहीम, सूर, तुलसी सा लिखूँ या सीख लूँ, रसखान और हरिऔध से।   कहाँ से सीखूँ भाषा शैली, मुझको शरण […]

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खुशी मेरी सास की

क्या सुना है, अपनी सास को खुश कर पायी है कोई बहू आखिर इतनी लड़कियाँ देख कर घर में लायी एक बहू। अब इसमें इतनी कमियाँ आखिर कहूँ तो किससे कहूँ मेरी बेटी इतनी गुणी है है इतनी कामकाजी पर बिल्कुल ही कामचोर निकली है मेरी बहू। बिना कोई सिंगार करे ही सोनी दिखती मेरी […]

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सच है, सीखने की कोई उम्र नहीं होती ‌

हर दिन हम कुछ नया सीखते हैं, वो अलग बात है कि कई बार हमारा ध्यान उस तरफ नहीं जाता। हर घटना-परिघटना से हम सीखते अवश्य हैं और इस सीखने की शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। खेल-खेल में न जाने कितनी सारी बातें, कितने करतब, कितना ज्ञान हमारे अंदर समाहित हो जाता है, […]

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नारी देह से परे भी कुछ है

बुद्धि, युक्ति, व्यंजना करे जो गूढ़ मंत्रणा वो सूर्य सी प्रदीप्त है नहीं कपोल कल्पना। ललाट उच्च, नेत्र शील ज्ञान सिंधु है भरा अधर कमल से दीखते, हैं बोलते खरा-खरा हृदय पुनीत भाव से गृहस्थ धाम संजना वो सूर्य सी प्रदीप्त है नहीं कपोल कल्पना। वो शुभ्र है या श्याम है नहीं वो मात्र चाम […]

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स्त्री और पौरुष

तुम्हारे पौरुष के पाँव जिन्दा हैं क्योंकि मैंने समेट रखा है अपने पाँवों को रेशम के कीड़ों की तरह। तुम्हारे पौरुष की आँखें जिन्दा हैं क्योंकि मेरी आँखें झुकी हुई हैं शर्मीली दुल्हन की तरह। तुम्हारा पौरुष जीवित है क्योंकि मैंने अपनी अस्मिता को छिपा रखा है अपने आँचल में। तुम्हारा सिर गर्व से ऊँचा […]

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सिर्फ शब्द

ककहरे के साथ ही सीख लिया था, हर शब्द का महत्व हर शब्द की सार्थकता हर शब्द का अपना वज़न तभी तो वाक्य सीधे अर्जुन के तीर की तरह वहीं लगते थे दिल में, सीख लिए थे अंदाजे-बयां भी कि हर सुनने वाला बेसाख्ता कह उठता, वाह इधर कुछ समय से मातमी शब्दों ने हजारों […]

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करो कुछ ऐसा कि फिर से खिल उठें मुरझाए हुए चेहरे

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, ये पंक्तियाँ हमारे कविश्रेष्ठ द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने लिखी हैं, जो आज के माहौल में शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रही हैं। मैंने अभी जिस माहौल या दौर का जिक्र किया, वह विशेष रूप से कोरोना महामारी के कारण बना है, जिसने पिछले एक साल से हमें […]

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विचलित धरा, महसूस कर उसका कराहना

हरी-भरी वसुंधरा के गुनहगार हैं हम न जाने कितने घाव सहन किये इसने सदियों से हमारी विरासत की भागीदार है यह भूत भविष्य वर्तमान है यह चोट पायी इन्सान से ऐसी इसने हो गयी धरा बेहाल जख्म दिए कितने मानवीय गतिविधियों ने अरे बस, अब तो रुक जा, देख आज वही धरती तुम्हें घर पे […]

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