नारी देह से परे भी कुछ है

बुद्धि, युक्ति, व्यंजना करे जो गूढ़ मंत्रणा वो सूर्य सी प्रदीप्त है नहीं कपोल कल्पना। ललाट उच्च, नेत्र शील ज्ञान सिंधु है भरा अधर कमल से दीखते, हैं बोलते खरा-खरा हृदय पुनीत भाव से गृहस्थ धाम संजना वो सूर्य सी प्रदीप्त है नहीं कपोल कल्पना। वो शुभ्र है या श्याम है नहीं वो मात्र चाम […]

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स्त्री और पौरुष

तुम्हारे पौरुष के पाँव जिन्दा हैं क्योंकि मैंने समेट रखा है अपने पाँवों को रेशम के कीड़ों की तरह। तुम्हारे पौरुष की आँखें जिन्दा हैं क्योंकि मेरी आँखें झुकी हुई हैं शर्मीली दुल्हन की तरह। तुम्हारा पौरुष जीवित है क्योंकि मैंने अपनी अस्मिता को छिपा रखा है अपने आँचल में। तुम्हारा सिर गर्व से ऊँचा […]

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