आजादी के बदलते मायने

Colours of Life

आजादी के बदलते मायने शीर्षक देखते ही हमारे क्रांतिकारियों का चित्र समूह आपकी आँखों के सामने से गुजर गया होगा। लेकिन आज मैं बात कर रही हूँ आज की तथाकथित आजादी की। आज हम आजादी माँग रहे हैं अपनी परंपराओं से, अपनी विरासतों से, अपने बड़े-बुजुर्गों से, आजादी संयुक्त परिवार से, आजादी अपने कर्तव्य से, आजादी अपनी जड़ों से।

आज हम एक ऐसे परिवेश का निर्माण कर रहे हैं जिसमें अपनी बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं के कारण हम पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर रहे हैं या यूँ कहें कि पश्चिमी देशों के रहन-सहन से प्रभावित होकर अपने परिवार में विघटन की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। आपने भी इस नये परिवर्तन को महसूस किया होगा। आज अगर आप अपने आसपास नजर उठा कर देखें तो अधिकतर घरों में बुजुर्ग-दंपति अपने बच्चों की शादी व नौकरी के बाद घर में किसी कामवाली बाई के भरोसे जीवन यापन कर रहे हैं। आज गाँव हो या शहर- हर दूसरे घर में ताला पड़ा हुआ है। हम अपनी बढ़ती हुई आकांक्षाओं के कारण अपने घर-परिवार, गाँव, रिश्ते-नाते आदि से दूरी बना रहे हैं। जहाँ गाँव में ऐसा माहौल था कि पूरा गाँव एक परिवार सा लगता था, आज महानगरों में एक बहुमंजिला इमारत में कितने सारे गाँव समा गये हैं। उन मकानों में हम खून के रिश्तों से दूर होकर एक नये रिश्ते की शुरुआत कर रहे हैं, पर जैसे ही लगता है कि वह रिश्ता हमारे व्यक्तिगत जीवन में दखल दे रहा है, फिर उस रिश्ते से भी हम किनारा कर लेते हैं।

मैं यह नहीं कह रही कि इच्छा व महत्वाकांक्षा होना गलत है। लेकिन इच्छा की पूर्ति करते-करते हम कब अपनी जड़ों से दूर हो जा रहे हैं, संयुक्त परिवार से एकल परिवार की कल्पना कब हमारे माता-पिता के हृदय को आहत कर देती है, हम समझ भी नहीं पाते। जिन माता-पिता या बड़ों के बगैर बचपन में हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाते थे, आज वर्षों बीत जाते हैं उनकी सूरत देखे हुए। मैं नहीं कहती कि आप सब कुछ छोड़ कर वापस आ जाइए, बल्कि अपनी इच्छाओं को उड़ान दीजिए, नित-नये आयाम दीजिए। लेकिन कुछ समय तो अपने अपनों के साथ को दीजिए। अपने त्योहार की खुशियों को दुगुना करिए, बनावटी चकाचौंध से बाहर निकलिए, अपने लोगों की आँखों में खुशियों की चमक भरिए। अपनी आने वाली पीढ़ी को नयी राह दिखाइए, उन्हें अपने परिवार और जड़ों से जोड़े रखिए। सिर्फ तीज-त्योहारों में ही नहीं, कभी बेवजह भी अपने घर आइए, अपने गाँव आइए, अपने माता-पिता के पास बैठिए, कुछ उनकी सुनिए, कुछ अपनी सुनाइए, कुछ तो समय होना चाहिए उनके लिए जिन्होंने हमें हमारे होने का मतलब समझाया है। फिर लौट जाइए अपने उन घोंसलों में और उठाइए अपनी तथाकथित आजादी का लुत्फ।

स्मृति 

वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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