नीलिमा मिश्रा की रचना- माटी की व्यथा

मैं तो कच्ची माटी ही थी, तुम्हारे समीप हे मेरे राम, तुमने मुझे अपने रंग में रंग, दिया एक मुझे नया आयाम। ढल गई तुम्हारे साँचे में प्रभु, बन गई मैं तुम्हारी सहगामिनी, मिला तुम्हें चौदह बरस का बनवास, चली संग तुम्हारे बन के अनुगामिनी। दुष्ट रावण के चंगुल से छुड़ाया फिर भी तुम्हारे नैनों […]

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आज औरत

खिज़ा की रुत में पलाश बनकर खिला भी करती है आज औरत। लगा के पहरे बला के ऊपर दुआ भी करती है आज औरत।। चले जो वश तो बचा के रख ले वो अपनी साँसें किसी की खातिर। यूँ ज़र्द पत्तों को अश्क देकर हरा भी करती है आज औरत।। न कोई जादू तिलिस्म कोई […]

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