नीलिमा मिश्रा की रचना- देहरी

जीवन संझा की देहरी पर आज बैठी सोच रही हूँ मैं श्रांत, क्लान्त तन मेरा मन मेरा अवसान की ओर ढलते ढलते धूमिल होता जा रहा देख रही हूँ मैं दूर कहीं बालकिरणों जैसी सुनहरी लालिमा लिये वो अल्हड़, खिलंदड़ा सा मासूम बचपन हँस हँस कर बुला रहा इशारे से फिर अपने पास मुझे खुली […]

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हर रोज नया इम्तहान है जिन्दगी

परिन्दों सी उड़ान है जिन्दगी, हर रोज नया इम्तहान है जिन्दगी। हर पहलू से इसे पढ़ कर देखो, एक नया आयाम है जिन्दगी। दो कदम चल कर रुक गये क्यों, रोज एक नया मुकाम है जिन्दगी। यह नफरत की आग फैली है क्यों, जब मोहब्बत का नाम है जिन्दगी। मास्क ने छीन ली लबों की […]

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कोने

सुनो! कौन कहता है कोने सूने या बेवज़ह होते हैं लगा दी जाती हैं लताएँ निःशब्द आँगन के कोनों में चहचहाने उन चिड़ियों को जो बैचैन है अपनों के पलायन से, वीराने ड्राइंग रूम की छटपटाहटें करने दूर कोनों में रख दिये जाते हैं सूखे फूलों से सजे गुलदान ठीक उसी तरह जैसे भीतर से […]

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मैं वृक्ष हूँ

  मैं वृक्ष हूँ अपनी आत्मकथा सुनाता हूँ अपने मन की बात बतलाता हूँ सदियों से खड़ा साक्षी हूँ हर सुख-दुख के लम्हों का द्रष्टव्य मैं ही तो गवाक्षी हूँ सभ्यता की उत्पत्ति देखी विनाश को भी देख रहा हूँ मौन साधना की परिणिति अविचल ख़ुद को रख रहा हूँ जितना ऊपर बढ़ जाता हूँ […]

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