नीलिमा मिश्रा की रचना- रीत

कैसी “रीत” है दुनिया की, कि संग संग रहते हुये भी, मिलते नहीं कभी नदिया, झील और सागर के दोनों किनारे, चाँद और सूरज की , युगल जोड़ी है संग संग, फिर भी इनका मिलन है दुश्वारे, राधा कृष्ण एक होते हुये भी, ना मिल पाये कभी , जगत रीत के मारे, राम और सिया […]

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प्रेम

क्यूँ झुकता है आसमां, बाँहों में समेटने धरती को, हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ गुनगुनाते हैं भौंरे, चूमने फूलों को हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ दौड़ती है नदी, सागर में समाने, हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ बादल बरसते हैं, पर्वतों पर, हाँ ये प्रेम ही तो है। क्यूँ आँख […]

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